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पंडित हरिश्चंद्र शर्मा

पं. हरिश्चंद्र शर्मा परंमपरागत रूप से एक ज्योतिषीय परिवार की शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है । उनके परदादा श्री लालचंद शर्मा ज्योतिष के प्रकांड पंडित रहे हैं, जिन्होने वेंकटेश केतकर के ज्योतिर्गणित को समझ कर उसके समकक्ष अपना ही एक ग्रंथ आशुबोध लिख डाला था। उनके द्वारा बनाया हुआ शंकु आज भी हमारे पास विद्यमान है जिसकी सहायता से किसी भी शहर का पलाभा (अक्षांश का प्रतिरूप) वे निकाला करते थे । इस शंकु ने ही पं. हरिश्चंद्र के मन मस्तिष्क मे ज्योतिष के प्रति एक जिज्ञासा बचपन से ही जाग्रत कर दी थी । पिता श्री गिरिधरलाल लक्ष्मीचंद शर्मा प्रकांड ज्योतिषी थे वे स्वयं पंचाग बनाया करते थे जो हस्तलिखित ही हुआ करता था । जन्मपत्री के निर्माण मे वे जातक के जन्मकालीन ग्रह उसी गणित के आधार पर बनाया करते थे । 

उनको अपने पुत्र हरिश्चंद्र पर गर्व होता था और वे बड़े गर्व से उसका परिचय कराते समय कहा करते थे कि मेरा यह पुत्र गणित मे बहुत निष्णात है । जब हरिश्चंद्र नवीं कक्षा का विद्यार्थी था तब गणित से संबद्ध अनेक प्रकार के जटिल प्रश्न पिता श्री उन से पूछ लिया करते थे और उसका समाधान पूर्वक उत्तर पा कर प्रसन्न हो जाया करते  थे । एक दिन पिता श्री ने उससे सूर्योदय निकालने को कह दिया, हरिश्चंद्र अचंभित था कि यह कौन सा प्रश्न मुझ से पूछ लिया गया है जिसके बारे मे कभी सोच ही नहीं था जाना ही नहीं था । पर हरिश्चंद्र ने यह नहीं कहा कि मुझे यह ज्ञात नहीं है अथवा इस बारे मे पता नहीं है, उसने कहा कि मैं बताता हूँ, किंतु कुछ समय लगेगा, मुझे इस पर विचार करना पड़ेगा, उसके बाद ही मैं इसका उत्तर दे पाउंगा ।

हरिश्चंद्र रोज छत पर जाता और सूर्योदय के बारे मे विचार करता रहता कि क्यों कर यह रोज बदलता है, सूर्योदय को जानने की उसकी ललक बहुत तीव्र हो चुकी थी । दिन रात इसीका चिन्तन चलता रहता था, तीन वर्ष बीत गये तब हरिश्चंद्र  B.Sc.  के प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था  गणित उसका विषय था, जिसके माध्यम से इस प्रश्न के हल होने की संभावनाएं बड़ने लगी थीं  तब एक दिन उसे सफलता मिली और उसने सूर्योदय को ज्ञात करने का सूत्र निकाल ही लिया । वह प्रसन्न था और उसने यह बात बड़े भाई श्री कल्याण जी को बताई और उस  सूत्र के बारे मे भी बताया, भाई श्री ने कहा यही सूत्र तो भास्कराचार्य ने बता रखा है । इस पर पं. हरिश्चंद्र ने कहा कि मुझे यह पहले क्यों नही बताया गया था । भाई हंस पड़े और कहा तेने इसे स्वयं निकाल लिया है यह बड़ी बात है । तब उन्होने यह बात पिता श्री को भी बताई । पिता जी गद-गद थे । हरिश्चंद्र का ज्योतिष का यह पहला कदम था । पर हरिश्चंद्र को फलित ज्योतिष पर पूरा भरोसा नहीं था जब कि उसके गणित के पक्ष पर उसको विश्वास था । इसका कारण यह था कि हमारे फलित के ग्रंथों मे उसकी आधार भूत अवधारणाओं का अभाव था बहुत कुछ याद कर लेने को कहा जाता था पर उसके पीछे की अवधारणा नहीं बताई जाती थी । आश्चर्य तो होता था कि घटनाओ का इस कथन के साथ मेल कैसे हो रहा है । पर कार्य कारण के अभाव मे स्वीकारने मे कठनाई का अनुभव होता था । 

पर न जाने क्यों हरिश्चंद्र को अपने अंतर्मन से यह पुकार बार बार आती रहती थी कि अपने पुरातन थाति को तुम मत छोड़ो, वह ज्योतिष को पाखंड समझता था इस कारण बार बार इससे दूर जाने का यत्न करता रहता था पर परंम्परा ने उसका पिंड नहीं छोड़ा । उसने सोचा कि यदि मुझे इसका अध्ययन करना ही है तो मैं इसके मूल अवधारणाओं को ढूँढ निकालूंगा । अध्ययन प्रारंभ किया इसके इतिहास को पढ़ा समझा । सर्व प्रथम भारतीय ज्योतिष ग्रंथ को पढ़ा , शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने बड़े मनोयोग एवं परिश्रम से इस पुस्तक मे भारतीय ज्योतिष के विकासक्रम और और ज्योतिष के सभी पहलुओं पर विचार व्यक्त किये हैं । ज्योतिष मे रुचि रखने वालों के लिये यह अत्यंत उपयोगी एवं आवश्यक पुस्तक है । तत्पश्चात डा. गोरखप्रसाद द्वारा लिखित भारतीय ज्योतिष का अध्ययन किया उन्होने भारतीय ज्योतिष के साथ साथ संसार भर मे ज्योतिष के विकास के बारे मे लिखा है बड़ी सार गर्भित पुस्तक है यह । वराहमिहिर का पंचसिद्धांतिका एवं संहिता ने प्राचीन भारतीय ज्योतिष का ज्ञान करवा दिया । उनकी संहिता मे फलित ज्योतिष एवं संहिता अर्थात ग्रहादि का सार्वभौमिक प्रभाव किस प्रकार पड़ते हैं इस का ज्ञान इसमे दिया गया है । कुछ मौलिक सिद्धांतों का उल्लेख इन पुस्तकों द्वारा प्राप्त हुआ । फिर फलित ज्योतिष की पुस्तकें पढ़ना प्रारंभ किया ,पाराशर, सारावली आदि ग्रंथों के अध्ययन से बहुत कुछ फलित ज्योतिष के बारे मे जान पाया । मंत्रेश्वर की फल दीपिका बहुत सटीक पुस्तक है । ताजिक नीलकंठी के कार्य ने प्रभावित किया लगा कि किसी व्यक्ति ने पहली बार इसे वैज्ञानिक स्वरूप देने का यत्न किया है । मैं नीलकंठी का बहुत आभारी हूँ जिन्होने मुझे एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया । अंग्रेजी ज्योतिषियो के अनेक ग्रंथ पढ़ने का सौभाग्य मुझे मिला, जिनमे से लियो और सेफराल की पुस्तके प्रमुख कही जा सकती है । उनके विश्लेषण बहुत सटीक हैं तथा ये दोनों भारतीय ज्योतिष से प्रभावित थे ऐसा उनके ग्रंथों के अध्ययन से प्रतीत होता है । बहुत से भारतीय ज्योतिष के सिद्धांत इनके माध्यम से समझने मे सुविधा का अनुभव हुआ ।

गणित का विद्यार्थी होने के कारण हरिश्चंद्र को इसके गणितीय पक्ष के साथ साथ फलित ज्योतिष, की गहराइयो को समझने मे देरी नहीं लगी । उसने एक प्रकार से भारतीय और विदेशी ज्योतिषीय विधा पर अपना अधिकार जमा लिया । उनकी अच्छाइयां और न्यूनताओं को उन्होंने बहुत ही बारीकी से परखा निरखा है । ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय ज्योतिषीय विधा में बहुत लंबे कालावधि से विशेष अनुसंधान का कार्य न के बराबर हुआ है इस कारण हमारा भारतीय ज्योतिष कुछ कुंठा को प्राप्त गया है। ज्ञान के स्थान पर पाखंड और आडंबर  ने अपना विस्तार अधिक कर लिया है। अब समय आ गया है कि इसका पुनरावलोक किया जाय,   इसके पुनरावलोकन की महती आवश्यकता है इसे ध्यान मे रखते हे पं. हरिचंद्र ने इसे परिष्कृत कर नवीन रूप देने का यत्न किया है। यह कार्यक्रम उसीकी शृंखला की एक कड़ी के रूप मे आपके सामने प्रस्तुत है।

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